वो लाल शरबत जिसने झेले दो विभाजन फिर भी उसके स्वाद में नहीं आई कड़वाहट
गर्मियों से राहत के लिए हम भारतीय अलग-अलग तरीके अपनाते हैं. नींबू शिकंजी, आम पन्ना, बेल का शरबत, सत्तू, लस्सी, छास, रसना, फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी है. अब अलग-अलग घरों में अलग-अलग चीज़ें बनती हैं. कुछ घरों में रोज़ाना एक नया शरबत बनता है और रसना-स्कवॉश आदि मेहमानों के लिए रखा जाता है. मेरे घर पर भी कुछ ऐसा ही था, बचपन में बहुत ज़िद करने पर ही रसना बनता है और मां बेल का शरबत, आम पन्ना पीने को कहती तो हम नाक-मुंह सिकोड़ते. अब घर से बाहर हैं और जब यही खरीदकर पीना पड़ता है तो वो दिन याद आते हैं.
कई घरों में एक और बोतल बंद, लाल रंग की चीज़ फ़्रिज में रखी होती थी. तेज़ गंध, चिपचिपी सी ये चीज़ सभी भारतीयों ने देखी ही होगी. तेज़ गंध की वजह से ही ये मेरे घर पर नहीं आती थी. अगर किसी के घर गए और ये लाल शरबत पीने को मिला तो मुझे बड़ा अच्छा लगता. मां बाबा को उतनी पसंद नहीं थी. अब जिस शरबत का ज़िक्र किया जा रहा है वो पसंद होगी तो बहुत ज़्यादा पसंद होगी, पसंद नहीं होगी तो बिल्कुल नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त!
रसना, टैंग, किसान स्कवॉश जैसी चीज़ों के ज़िन्दगी में आने से पहले हर भारतीय घर में ये लाल शरबत वाली शीशी मौजूद थी. पानी में घोलकर इसे पीने से पूरा शरीर ही नहीं रूह तक ठंडा हो जाता था. अपने नाम को सार्थक करता है रूह अफ़ज़ा.
कई चीज़ों में मिलाया जाता है रूह अफ़ज़ा
रूह अफ़ज़ा को सिर्फ़ पानी में घोलकर ही नहीं पिया जाता. इसे आइसक्रीम में मिलाया जाता है. कुल्फ़ी-फ़ौलूदा का भी स्वाद बढ़ाता है रूह अफ़ज़ा. कुछ लोग तो दूध में भी रूह अफ़ज़ा मिलाकर पीते हैं. इन सब के अलावा फ़्रूट सैलड, शेक, लस्सी में भी रूह अफ़ज़ा ने अपनी जगह बना ली है.रमज़ान का पर्याय बन चुका है रूह अफ़ज़ा. अगर इफ़्तारी में रूह अफ़ज़ा न हो तो इफ़्तारी अधूरी लगती है.रूह अफ़ज़ा नाम भी अपने आप में ही एक अलग एहसास देता है. पंडित दया शंकर मिश्र की किताब, ‘मसनवी गुलज़ार-ए-नसीम’ (1254) में पहली बार ये नाम लिया गया. रूह अफ़ज़ा फ़िरदौस की बेटी का नाम था.
रूह अफ़्ज़ा सिर्फ़ एक शरबत नहीं है, बोतल बंद इतिहास है. Hamdard की वेबसाइट के मुताबिक, 1906 में अविभाजित भारत में पुरानी दिल्ली की गलियों में हकीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद द्वारा ‘हमदर्द दवाखाना’ की शुरुआत की गई. यूनानी दवाई का ये औषधालय और हमदर्द का रूह अफ़ज़ा आज खुद इतिहास बन चुका है. हकीम मजीद ने 1907 में एक ख़ुश्बूदार, गर्मी में राहत दिलाने वाले शरबत को बनाया. इसमें जड़ी-बूटियां, मसाले, अर्क आदि का प्रयोग किया गया था. ख़ास बात ये है कि इसकी विधि आज तक किसी को मालूम नहीं है.पुरानी दिल्ली की छोटी सी दुकान में जो गर्मी से राहत दिलाने के लिए दवाई बनाई गई थी वो आज भारत ही नहीं दुनियाभर के कई देशों के घरों में हमेशा के लिए जगह बना चुकी है.
शराब की बोतल में पैक करके बेचा गया
हमदर्द की रूह अफ़ज़ा ने कई दशकों का सफ़र तय किया गया है. शुरुआत में गर्मी से छुटकारा दिलाने वाली इस दवाई को शराब की बोतलों में पैक करके बेचा जाता था. इसके बाद एक कलाकार मिर्ज़ा नूर अहमद ने 1910 में इसका लोगो डिज़ाइन किया. Start Up Talk Daily के मुताबिक रूह अफ़ज़ा में गुलाब, केवड़ा, गाजर, पालक, शराब में डुबोए किशमिश का प्रयोग किया जाता है. शरबत में डलने वाली चीज़ों को ध्यान में रखकर ही लोगो डिज़ाइन किया गया था.
रूह अफ़ज़ा ने भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश का बंटवारा देखा लेकिन आज भी उसकी शान में कमी नहीं आई है.
The New York Times के लेख के अनुसार, पाकिस्तान में रूह अफ़ज़ा दूध और बादाम के साथ धार्मिक जुलूसों में परोसा जाता है. वहीं बांग्लादेश में कोई दामाद अपने ससुराल रूह अफ़ज़ा की बोतलें लेकर जाता है. यहां के फ़िल्मों के डायलॉग्स में भी रूह अफ़ज़ा है, नायक नायिका से कहता है- ‘तुम रूह अफ़ज़ा जैसी ख़ूबसूरत हो!’
कुछ लोगों ने तो ये तक कह दिया था कि रूह अफ़ज़ा से कोविड-19 मरीज़ों को भी राहत मिलती है. इंडिया टाइम्स हिंदी इस बात की पुष्टि नहीं करता. चाहे प्लास्टिक की बोतलों में आए या कांच की, रूह अफ़ज़ा की जगह हमारी ज़िन्दगी से कोई नहीं ले सकता.